मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध – Essay on Maithili Sharan Gupt in Hindi Pdf Download – Nibandh

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मैथिलीशरण गुप्त हिंदी साहित्य के जाने माने कवी कहलाए जाते है| उन्होंने अपनी बहुत सी रचनाओं से सभी का दिल जीता था| वे हिंदी साहित्य के कड़ी बोली के बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रथम कवी माने जाते है| मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1986 में भारत के उत्तरप्रदेश के जासी में चिरंगाव में हुआ था| बचपन से ही उन्हें हिंदी कविताओं और साहित्य संदर्ब में रूचि थी| उनके पिता जी का नाम सेठ रामचरण कनकने था और माता का नाम कौशिल्या बाई था| आज के इस पोस्ट में हम आपको मैथिलीशरण गुप्त की कविताए, मैथिलीशरण गुप्त की कविता की विषयवस्तु, मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ, मैथिलीशरण गुप्त की कविता यशोधरा, मैथिलीशरण गुप्त की काव्य भाषा पर विचार, मैथिलीशरण गुप्त साकेत इन मराठी, हिंदी, इंग्लिश, बांग्ला, गुजराती, तमिल, तेलगु, आदि की जानकारी देंगे जिसे आप अपने स्कूल के निबंध प्रतियोगिता, कार्यक्रम या भाषण प्रतियोगिता में प्रयोग कर सकते है| ये निबंध खासकर कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 ,10, 11, 12 और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए दिए गए है|

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मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम ‘सेठ रामचरण’ और माता का नाम ‘श्रीमती काशीबाई’ था। पिता रामचरण एक निष्ठावान् प्रसिद्ध राम भक्त थे।[2] इनके पिता ‘कनकलता’ उप नाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे। गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली थी। वे बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे। पिता ने इनके एक छंद को पढ़कर आशीर्वाद दिया कि “तू आगे चलकर हमसे हज़ार गुनी अच्छी कविता करेगा” और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ।[3] मुंशी अजमेरी के साहचर्य ने उनके काव्य-संस्कारों को विकसित किया। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन संस्कारों तथा आधुनिक विचारधारा दोनों का समन्वय था। मैथिलीशरण गुप्त जी को साहित्य जगत् में ‘दद्दा’ नाम से सम्बोधित किया जाता था।

मैथिलीशरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव, झाँसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झाँसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहाँ इनका मन न लगा और दो वर्ष पश्चात् ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया। लेकिन पढ़ने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। इन्हें ‘आल्हा’ पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।

इसी बीच गुप्तजी मुंशी अजमेरी के संपर्क में आये और उनके प्रभाव से इनकी काव्य-प्रतिभा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अतः अब ये दोहे, छप्पयों में काव्य रचना करने लगे, जो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में प्रकाशित होने वाले ‘वैश्योपकारक’ पत्र में प्रकाशित हुई। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जब झाँसी के रेलवे ऑफिस में चीफ़ क्लर्क थे, तब गुप्तजी अपने बड़े भाई के साथ उनसे मिलने गए और कालांतर में उन्हीं की छत्रछाया में मैथिलीशरण जी की काव्य प्रतिभा पल्लवित व पुष्पित हुई। वे द्विवेदी जी को अपना काव्य गुरु मानते थे और उन्हीं के बताये मार्ग पर चलते रहे तथा जीवन के अंत तक साहित्य साधना में रत रहे। उन्होंने राष्ट्रीय आंदलनों में भी भाग लिया और जेल यात्रा भी की।[3]

मैथिलीशरण गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। ‘अनघ’ से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य–मान ग्रन्थ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का सम्बोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य–कला में निखार आया और उनकी रचनाएँ ‘सरस्वती’ में निरन्तर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला काव्य जयद्रथ-वध आया। जयद्रथ-वध की लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनूदित सब मिलाकर, हिन्दी को लगभग 74 रचनाएँ प्रदान की हैं। जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।

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Maithili Sharan Gupt Essay in Hindi

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के कवि थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया और इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वध,यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।

मध्य प्रदेश के संस्कृति राज्य मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने कहा है कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती प्रदेश में प्रतिवर्ष तीन अगस्त को कवि दिवस के रूप में व्यापक रूप से मनायी जायेगी। यह निर्णय राज्य शासन ने लिया है। युवा पीढ़ी भारतीय साहित्य के स्वर्णिम इतिहास से भली-भांति वाकिफ हो सके इस उद्देश्य से संस्कृति विभाग द्वारा प्रदेश में भारतीय कवियों पर केन्द्रित करते हुए अनेक आयोजन करेगा।

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त सन १८८६ ई. में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या बाई की तीसरी संतान के रुप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। वे “कनकलताद्ध” नाम से कविता करते थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। १२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक “सरस्वती” में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई। प्रथम काव्य संग्रह “रंग में भंग’ तथा वाद में “जयद्रथ वधप्रकाशित हुई। उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ “मेघनाथ वध”, “ब्रजांगना” का अनुवाद भी किया। सन् १९१४ ई. में राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत “भारत भारती” का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थ “स्वप्नवासवदत्ता” का अनुवाद प्रकाशित कराया। सन् १९१६-१७ ई. में महाकाव्य “साकेतका लेखन प्रारम्भ किया। उर्मिला के प्रति उपेक्षा भाव इस ग्रन्थ में दूर किये। स्वतः प्रेस की स्थापना कर अपनी पुस्तकें छापना शुरु किया। साकेत तथा अन्य ग्रन्थ पंचवटी आदि सन् १९३१ में पूर्ण किये। इसी समय वे राष्ट्रपिता गांधी जी के निकट सम्पर्क में आये। ‘यशोधरा’ सन् १९३२ ई. में लिखी। गांधी जी ने उन्हें “राष्टकवि” की संज्ञा प्रदान की। सन् १९४१ ई. में व्यक्तिगत सत्याग्रह के अंतर्गत जेल गये। आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। १९५२-१९६४ तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुये। सन् १९५३ ई. में भारत सरकार ने उन्हें “पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने सन् १९६२ ई. में “अभिनन्दन ग्रन्थ’ भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। मैथिलीशरण गुप्त को साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से १९५४ में सम्मानित किया गया।

इसी वर्ष प्रयाग में “[[सरस्वती पत्रिका|सरस्वती” की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता गुप्त जी ने की। सन् १९६३ ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया। १२ दिसम्बर १९६४ ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया। ७८ वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, १९ खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। “भारत भारती’ के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे।

Maithili Sharan gupt Nibandh

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी जनपद के अंतर्गत चिरगांव के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में 13 अगस्त 1886 को हुआ था. इनके पिता सेठ रामचरण निष्ठावान राम भक्त तथा कवि थे. अत: गुप्तजी को कविता करने कि प्रेरणा अपने पिता से प्राप्त हुई. सरस्वती के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आकर इनकी काव्य प्रतिभा का समुचित विकास हुआ.

गुप्तजी ने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लिया तथा कारावास का दंड भोगा. वे राष्ट्रपति द्वारा सन 1952 तथा 1957 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किये गए. आगरा तथा प्रयाग विश्वविद्यालयो ने डी.लिट् कि मानद उपाधि से इन्हें सम्मानित किया. राष्ट्रपति ने पद्मभूषण से अलंकृत किया. संकेत, महाकाव्य पर इन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन ने मंगला प्रसाद पुरस्कार प्रदान किया. 12 दिसम्बर सन 1964 को गुप्तजी इस संसार का परित्याग कर चिर निद्रा में विलीन हो गए. मैथिलीशरण गुप्त ने मौलिक तथा अनुदित चालीस ग्रन्थों की रचना की इनमे से प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ है. साकेत, यशोधरा, द्वापर, पंचवटी, भारत – भारती, जयद्रथ वध सिद्धराज और विष्णुप्रिया. साकेत महाकाव्य तथा पंचवटी खंडकाव्य है.

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में मूल स्वर राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का है. भारत-भारती में प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता के स्वर्णिम इतिहास की गौरव गाथा तथा वर्तमान दासता की दयनीयता दशा पर करुण क्रन्दन और भविष्य के प्रति उद्बोधन है.

प्राचीन भारत के गौरव गान के साथ-साथ गुप्तजी ने अपने युग की नवीन विचार धाराओं को भी अपनाया. गुप्तजी ने अपने काव्य में भारतीय नारी के त्याग कि सराहना करते हुए उसकी दिन हीन दशा पर संवेदना व्यक्त की है. भारतीय जीवन का मार्मिक चित्र निम्न पंक्तियों में अंकित किया गया है.गुप्तजी के काव्य में प्रकृति का अनेक रूपों में चित्रण हुआ है. यह चित्रण मोहक और रमणीय है. पंचवटी खंडकाव्य की ये प्रारम्भिक पंक्तिया इस दृष्टी से दृष्टव्य है.

चारू चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही है जल थल में, स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बर तल में.गुप्तजी के काव्य में नवरसो का परिपाक मिलता है. मुख्य रूप से श्रृंगार, शांत, करुण और वीर रस की प्रधानता है.

गुप्तजी की काव्य भाषा खडी बोली है . इनकी भाषा सरल, सरस, सुव्यवस्थित और परिमार्जित है. भाषा में ओज तथा प्रसाद गुण का प्राधान्य है. गुप्तजी की भाषा कड़ी बोली का आदर्श और उन्नत रूप है. गुप्तजी की काव्य शैली में विभिन्न रूप प्रयुक्त है. उन्होंने प्रबंध काव्य, खंड काव्य गीति नाट्य तथा पद शैली में काव्य रचना की है. प्रबंध काव्य लिखने में गुप्तजी को विशेष सफलता प्राप्त हुई है.

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