कैफ़ी आज़मी पर शायरी इन हिन्दी – कैफ़ी आज़मी नज़्म

कैफ़ी आजमी शायरी

14 जनवरी 1919 को जन्मे मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी का पूरा उपनाम अख्तर हुसैन रिजवी था । इस साल हम उनकी 101 वीं जयंती मनाने जा रहे है । जब उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिखी तब वह केवल 11 साल के थे । अगर गज़लों की बात की जाए तो कैफ़ी आजमी की गज़लों में हमे हर रंग देखने को मिलता है । इसके अल्फ़ाज़ इतने सरल होते थे की किसी को भी समझ में आ जाते थे ।

उन्होंने नज़्मों और गज़लों के साथ साथ की famous फिल्मी गाने, कविताएँ (poems), nazm जैसे daayra, pasheman, tajmahal, ram दूसरा बनवास आदि  लिखे है । उन्होंने वही लिखा जो लोगों के जहन तक पहुँच सकते आइए पढ़ते है उनके कुछ लाजवाब शेरो – शायरी , in english with images pdf  में download कर सकते हैं।

Kaifi Azmi Shayari

1.)

झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं।
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं।।

2.)

इन्साँ की ख़्वाहिशों की कोई इन्तिहा नहीं।
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद।।

3.)

आज फिर टूटेंगी तेरे घर नाज़ुक खिड़कियाँ।
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में।।

4.)

तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता।
मेरी तरह तेरा दिल बे-क़रार है कि नहीं।।

5.)

मैं ढूँढ़ता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता।
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता।।

कैफ़ी आजमी शायरी 3

Pyaar ka jashn nayi tarah manana hoga…

6.)

पाया भी उनको खो भी दिया चुप भी हो रहे।
इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं।।

7.)

ख़ार-ओ-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले।
मैं अगर थक गया, क़ाफ़िला तो चले।।

8.)

गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो।
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ।।

9.)

बहार आए तो मेरा सलाम कह देना।
मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने।।

10.)

दीवाना पूछता है ये लहरों से बार बार।
कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गईं।।

11.)

बस इक झिजक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में ।
कि तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फ़साने में।।

12.)

जो वो मेरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा।
बिछड़ के उनसे सलीक़ा न ज़िन्दगी का रहा ।।

13.)

नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए।
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता।।

14.)

जो इक ख़ुदा नहीं मिलत तो इतना मातम क्यों।
मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता।।

15.)

बिजली के तार पे बैठा हुआ हँसता पंछी।
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।।

16.)

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था।
जिस्म जल जाएँगे जब सर पर साया न होगा।।

17.)

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है।
तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो।।

18.)

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो।
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो।।

19.)

ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप।
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद।।

20. )

मेरा बचपन भी साथ ले आया।
गाँव से जब भी आ गया कोई।।

21.)

दीवाना-वार चाँद से आगे निकल गए।
ठहरा न दिल कहीं भी तिरी अंजुमन के बाद।।

22.)

दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं।
याद इतना भी कोई न आए।।

23.)

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है।
तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो।।

24.)

लैला ने नया जनम लिया है।
है क़ैस कोई जो दिल लगाए।।

25.)

सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़्साने।
सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने।।

कैफ़ी आज़मी नज़्म

kaifi_shabana aazmi

Kaifi Aazmi with Shabana Aazmi

Doosra Banwas

“राम बन-बास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए।

रक़्स-ए-दीवानगी आँगन में जो देखा होगा
छे दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहाँ से मिरे घर में आए।

जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशाँ
प्यार की काहकशाँ लेती थी अंगड़ाई जहाँ
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र में आए।

धर्म क्या उन का था, क्या ज़ात थी, ये जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मिरा लोग जो घर में आए।

शाकाहारी थे मेरे दोस्त तुम्हारे ख़ंजर
तुम ने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मिरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आए।

पाँव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने द्वारे से उठे।

राजधानी की फ़ज़ा आई नहीं रास मुझे
छे दिसम्बर को मिला दूसरा बनबास मुझे।।”

Zindagi

कैफ़ी आजमी शायरी 1

Tum itna jo muskura…

“आज अन्धेरा मिरी नस-नस में उतर जाएगा
आँखें बुझ जाएँगी बुझ जाएँगे एहसास ओ शुऊर
और ये सदियों से जलता-सा सुलगता-सा वजूद
इस से पहले कि सहर माथे पे शबनम छिड़के
इस से पहले कि मिरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म रुख़्सार को ठण्डक बख़्शें
इस से पहले कि मिरे बेटे का मज़बूत बदन
तन-ए-मफ़्लूज में शक्ति भर दे
इस से पहले कि मिरी बीवी के होंट
मेरे होंटों की तपिश पी जाएँ
राख हो जाएगा जलते-जलते
और फिर राख बिखर जाएगी

ज़िन्दगी कहने को बे-माया सही
ग़म का सरमाया सही
मैं ने इस के लिए क्या-क्या न किया
कभी आसानी से इक साँस भी यमराज को अपना न दिया
आज से पहले, बहुत पहले
इसी आँगन में
धूप-भरे दामन में
मैं खड़ा था मिरे तलवों से धुआँ उठता था
एक बे-नाम सा बे-रंग सा ख़ौफ़
कच्चे एहसास पे छाया था कि जल जाऊँगा
मैं पिघल जाऊँगा
और पिघल कर मिरा कमज़ोर सा मैं
क़तरा-क़तरा मिरे माथे से टपक जाएगा
रो रहा था मगर अश्कों के बग़ैर
चीख़ता था मगर आवाज़ न थी
मौत लहराती थी सौ शक़्लों में
मैं ने हर शक़्ल को घबरा के ख़ुदा मान लिया
काट के रख दिए सन्दल के पुर-असरार दरख़्त
और पत्थर से निकाला शोला
और रौशन किया अपने से बड़ा एक अलाव
जानवर ज़ब्ह किए इतने कि ख़ूँ की लहरें
पाँव से उठ के कमर तक आईं

और कमर से मिरे सर तक आईं
सोम-रस मैं ने पिया
रात दिन रक़्स किया
नाचते-नाचते तलवे मिरे ख़ूँ देने लगे
मिरे आज़ा की थकन
बन गई काँपते होंटों पे भजन
हड्डियाँ मेरी चटख़ने लगीं ईंधन की तरह
मन्तर होंटों से टपकने लगे रोग़न की तरह
अग्नि माता मिरी अग्नि माता
सूखी लकड़ी के ये भारी कुन्दे
जो तिरी भेंट को ले आया हूँ
उन को स्वीकार कर और ऐसे धधक
कि मचलते शोले खींच लें जोश में
सूरज की सुनहरी ज़ुल्फ़ें
आग में आग मिले
जो अमर कर दे मुझे
ऐसा कोई राग मिले

अग्नि माँ से भी न जीने की सनद जब पाई
ज़िन्दगी के नए इम्कान ने ली अंगड़ाई
और कानों में कहीं दूर से आवाज़ आई
बुद्धम् शरणम् गच्छामि
धम्मम् शरणम् गच्छामि
संघम् शरणम् गच्छामि
चार अबरू का सफ़ाया कर के
बे-सिले वस्त्र से ढाँपा ये बदन
पोंछ के पत्नी के माथे से दमकती बिन्दिया
सोते बच्चों को बिना प्यार किए
चल पड़ा हाथ में कश्कोल लिए
चाहता था कहीं भिक्षा ही में जीवन मिल जाए
जो कभी बन्द न हो दिल को वो धड़कन मिल जाए
मुझ को भिक्षा में मगर ज़हर मिला
होंट थर्राने लगे जैसे करे कोई गिला
झुक के सूली से उसी वक़्त किसी ने ये कहा
तेरे इक गाल पे जिस पल कोई थप्पड़ मारे
दूसरा गाल भी आगे कर दे
तेरी दुनिया में बहुत हिंसा है
उस के सीने में अहिंसा भर दे
कि ये जीने का तरीक़ा भी है अन्दाज़ भी है
तेरी आवाज़ भी है मेरी आवाज़ भी है
मैं उठा जिस को अहिंसा का सबक़ सिखलाने
मुझ को लटका दिया सूली पे उसी दुनिया ने

आ रहा था मैं कई कूचों से ठोकर खा कर
एक आवाज़ ने रोका मुझ को
किसी मीनार से नीचे आ कर
अल्लाहु-अकबर अल्लाहु-अकबर
हुआ दिल को ये गुमाँ
कि ये पुर-जोश अज़ाँ
मौत से देगी अमाँ
फिर तो पहुँचा मैं जहाँ
मैं ने दोहराई कुछ ऐसे ये अज़ाँ
गूँज उठा सारा जहाँ
अल्लाहु-अकबर अल्लाहु-अकबर
इसी आवाज़ में इक और भी गूँजा एलान
कुल्लो-मन-अलैहा-फ़ान
इक तरफ़ ढल गया ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का सर
हुआ फ़ालिज का असर
फट गई नस कोई शिरयानों में ख़ूँ जम-सा गया
हो गया ज़ख़्मी दिमाग़
ऐसा लगता था कि बुझ जाएगा जलता है जो सदियों से चराग़
आज अन्धेरा मिरी नस नस में उतर जाएगा
ये समुन्दर जो बड़ी देर से तूफ़ानी था
ऐसा तड़पा कि मिरे कमरे के अन्दर आया
आते-आते वो मिरे वास्ते अमृत लाया
और लहरा के कहा
शिव ने ये भेजवाया है लो पियो और
आज शिव इल्म है अमृत है अमल
अब वो आसाँ है जो दुश्वार था कल
रात जो मौत का पैग़ाम लिए आई थी
बीवी बच्चों ने मिरे
उस को खिड़की से परे फेंक दिया
और जो वो ज़हर का इक जाम लिए आई थी
उस ने वो ख़ुद ही पिया
सुब्ह उतरी जो समुन्दर में नहाने के लिए
रात की लाश मिली पानी में”

Makaan

कैफ़ी आजमी शायरी 2

Inssan ki khwaishiyon…

“आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी

ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाख़ों से उतारे हम ने
इन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हम ने

हाथ ढलते गये साँचे में तो थकते कैसे
नक़्श के बाद नये नक़्श निखारे हम ने
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द
बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने

आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शमों की लौएं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिये

अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ए-पैहम की थकन
बंद आँखों में इसी क़स्र की तस्वीर लिये
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आँखों में ख़टकती है स्याह तीर लिये

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी”

Andeshe

कैफ़ी आजमी शायरी 4

Waqt ne kiya…

“रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा

वो कहाँ और कहाँ काहिफ़-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ
उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिरमा
उस का एहसास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अरमा
तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा

झुक गई होगी जवाँ-साल उमंगों की जबीं
मिट गई होगी ललक डूब गया होगा यक़ीं
छा गया होगा धुआँ घूम गई होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरोंदे को जो ढाया होगा

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होंगे
अश्क आँखों ने पिये और न बहाये होंगे
बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाये होंगे
इक-इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

उस ने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़पता हुआ पाया होगा

बेमहल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होंगे
ग़म पशेमा तबस्सुम में ढल आये होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होंगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

ज़ुल्फ़ ज़िद कर के किसी ने जो बनाई होगी
रूठे जलवों पे ख़िज़ाँ और भी छाई होगी
बर्क़ आँखों ने कई दिन न गिराई होगी
रंग चेहरे पे कई रोज़ न आया होगा

होके मजबूर मुझे उस ने भुलाया होगा
ज़हर चुप कर के दवा जान के ख़ाया होगा”

Aurat

“उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़ल्ब-ए-माहौल में लर्ज़ां शरर-ए-जंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक-रंग हैं आज
आबगीनों में तपाँ वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क़ हम-आवाज़ ओ हम-आहंग] हैं आज
जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तेरे क़दमों में है फ़िरदौस-ए-तमद्दुन की बहार
तेरी नज़रों पे है तहज़ीब ओ तरक़्क़ी का मदार
तेरी आग़ोश है गहवारा-ए-नफ़्स-ओ-किरदार
ता-बा-कै गिर्द तिरे वहम ओ तअय्युन का हिसार
कौंद कर मज्लिस-ए-ख़ल्वत से निकलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू कि बे-जान खिलौनों से बहल जाती है
तपती साँसों की हरारत से पिघल जाती है
पाँव जिस राह में रखती है फिसल जाती है
बन के सीमाब हर इक ज़र्फ़ में ढल जाती है
ज़ीस्त के आहनी साँचे में भी ढलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

ज़िंदगी जोहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू काँपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू[ में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ कर रस्म का बुत बंद-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़्स के खींचे हुए हल्क़ा-ए-अज़्मत से निकल
क़ैद बन जाए मोहब्बत तो मोहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ ये अज़्म-शिकन दग़दग़ा-ए-पंद भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंद भी तोड़
तौक़ ये भी है ज़मुर्रद का गुलू-बंद भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मर्दान-ए-ख़िरद-मंद भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू फ़लातून ओ अरस्तू है तू ज़ेहरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं
तिरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से जबीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सँभलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे”

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