रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध – Rani Laxmi Bai in Hindi Essay Pdf Download

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध

“खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी” ये कहावत तो हम बचपन से ही सुनते आ रहे हैं | आज हम रानी लक्ष्मी बाई के बारे में आपको बताएंगे | बहादुरी, देशभक्ति और सम्मान की प्रतीक रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को पुणे में हुआ था। रानी लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत तांबे दरबार में एक सलाहकार थे और उनकी माँ भागीरथी एक विद्वान महिला थीं। रानी लक्ष्मीबाई ने बहुत ही कम उम्र में अपनी माँ को खो दिया था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता ने बहुत ही असामान्य तरीके से उनका पालन किया और हाथियों और घोड़ों की सवारी का अनुभव प्राप्त कराने और हथियारों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करने में पूर्ण रुप से सहयोग किया। रानी लक्ष्मीबाई नाना साहिब और तात्या टोपे के साथ बड़ी हुईं, जो स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाले पहले विद्रोह में सक्रिय भागीदारी रहे थे। 1842 में, रानी लक्ष्मी बाई का विवाह झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव से हुआ था। अपनी शादी के बाद वह, लक्ष्मीबाई के नाम से जानी जाने लगीं। आदि की जानकारी आपको मिलती है हिंदी, मराठी, इंग्लिश, बांग्ला, गुजराती, तमिल, तेलगु, आदि भाषा में जिसे आप अपने स्कूल के स्पीच प्रतियोगिता, कार्यक्रम या निबंध प्रतियोगिता में प्रयोग कर सकते है| ये निबंध कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 ,10, 11, 12 और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए दिए गए है|

Rani Laxmi Bai Essay in Hindi

विद्यालयों में class 1, class 2, class 3, class 4, class 5, class 6, class 7, class 8, class 9, class 10, class 11, class 12 के बच्चो को कहा जाता है रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध लिखें इसलिए हम लाये हैं rani lakshmi bai ka nibandh व rani laxmi bai nibandh in hindi वो भी 100 words, 150 words, 200 words, 400 words, 1000 words long व short essay जो की साल 2007, 2008, 2009, 2010, 2011, 2012, 2013, 2014, 2015, 2016, 2017 का full collection है जिसे आप share कर सकते हैं| साथ ही आप अटल बिहारी वाजपेयी पर निबंध भी देख सकते हैं|

भूमिका : हमारे भारत के लिए यह बहुत ही गर्व की बात है कि रानी लक्ष्मी बाई का जन्म हमारे भारत में हुआ था। भारतीय वसुंधरा को गौरंवान्वित करने वाली झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थों में ही आदर्श वीरांगना थीं। जो एक सच्चा वीर होता है वो कभी भी विपत्तियों से घबराता नहीं है।

एक सच्चे वीर को प्रलोभन कभी भी उसके कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते। एक सच्चे वीर का लक्ष्य उदार और उच्च होता है। एक सच्चे वीर का चरित्र अनुकरणीय होता है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह हमेशा आत्मविश्वासी , कर्तव्य परायण , स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। भारत के उन वीरों में से एक हमारी वीरांगना लक्ष्मीबाई भी थीं।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म : हमारे भारत की विरंग्नी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को कशी में हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी बाई था। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। महारानी लक्ष्मीबाई के पितामह बलवंत राव बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक थे।

इसी वजह से ही मरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी थी। रानी लक्ष्मीबाई का नाम मनिकर्णिका था लेकिन रानी लक्ष्मी बाई को बचपन से मनुबाई के नाम से पुकारा जाता था। इनके पिता महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे। इनकी माता एक सुसंस्कृत , बुद्धिमान और धर्म में विश्वास रखने वाली महिला थीं।

रानी लक्ष्मीबाई का कार्यक्षेत्र : झाँसी राज्य की रानी , 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीर योद्धा लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थीं। इन्होने अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीरों में से एक थीं। वे एक ऐसी वीर थीं जिन्होंने अपने साहस और बल पर लोगों से लोहा लिया और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुईं थीं। लेकिन अपने जीवन के पलों में अंग्रेजों को झाँसी पर शासन नहीं करने दिया था |

रानी लक्ष्मीबाई का बालपन : जब मनु चार साल की थीं तब उनकी माता का देहांत हो गया था। मनुबाई का पालन पोषण उनके पिता ने किया था। मनुबाई ने बचपन से ही शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ शस्त्रों की शिक्षा भी प्राप्त की थी। रानी लक्ष्मी बाई जन्म से ही कुशल और साहसी योद्धा थीं। वे कभी भी पराजय स्वीकार नहीं करती थीं। उनमें यह भावना जन्म से ही थी।

रानी लक्ष्मीबाई का विवाह : गंगाधर राव निवालकर 1838 में झाँसी के राजा बने थे। गंगाधर राव विधुर थे। मनुबाई का विवाह गंगाधर राव निवालकर से सन् 1842 में हुआ था। विवाह के बाद मनुबाई का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया था। रानी लक्ष्मी बाई 18 वर्ष की आयु में एक पत्नी बनी और 24 वर्ष की आयु में एक विधवा रानी बनी थीं।

रानी लक्ष्मीबाई का विवाहिक जीवन : विवाह के पश्चात 1851 में रानी लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पुत्र के जन्म की ख़ुशी में पूरी झाँसी में खुशियाँ मनायी जाने लगीं। लेकिन जन्म से चार महीने के बाद उसकी मृत्यु हो गई जिसकी वजह से मनुबाई , गंगाधर राव और पूरी झाँसी बहुत बड़े शोक सागर में डूब गई लेकिन इतना सब होने के बाद भी रानी लक्ष्मी बाई ने हार नहीं मानी। राजा गंगाधर राव को पुत्र मृत्यु से बहुत गहरा धक्का लगा जिससे वे कभी उभर ही नहीं पाए और आखिर में 21 नवम्बर , 1853 में उनकी मृत्यु हो गई।

पति की मृत्यु ने रानी लक्ष्मी बाई को बहुत ही कमजोर कर दिया लेकिन फिर भी उन्होंने धीरज रखा और हार नहीं मानी। राजा गंगाधर राव ने मरने से पहले ही दामोदर को अपने दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया था और इस बात की सुचना अंग्रेजों को भी पहुँचा दी थी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसे दत्तक पुत्र मानने से इंकार कर दिया था।

अंग्रेजों की राज्य हडप नीति : अंग्रेजों ने अधिक से अधिक राज्यों को हडपने की योजना बना ली थी जिस कारण से उत्तरी भारत के राजा, नवाब सभी के अंदर विद्रोह की भावना उत्पन्न हो गई। रानी लक्ष्मी बाई ने इस अवसर का फायदा उठाया और क्रांति को और अधिक बढ़ावा दिया तथा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाई।

जब राजा गंगाधर राव निवालकर की मृत्यु हो गई तो अंग्रेजों ने झाँसी की रानी को कमजोर और असमर्थ समझा और लोगों को झाँसी छोड़ने का आदेश दे दिया। रानी के झाँसी न छोडकर जाने की वजह से अंग्रेजों ने झाँसी पर हमला बोल दिया। लेकिन फिर भी रानी अंग्रेजों का सामना करने के लिए बिलकुल तैयार थीं। उनके आक्रमण के पीछे झाँसी राज्य को हडपने की चाल थी।

रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष : 27 फरवरी , 1854 को अंग्रेजी सरकार ने दत्तकपुत्र की गोद को अस्वीकार कर दिया और झाँसी को अंग्रेजो के राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। जब गुप्तचरों से रानी को यह खबर मिली तो रानी ने कहा ‘ मैं अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी ‘।

लेकिन 7 मार्च , 1854 में झाँसी पर अंग्रेजों ने अधिकार कर ही लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने पेंशन को स्वीकार कर दिया और नगर वाले राजमहल में रहने लगीं। यहीं से ही तो भारत की पहली स्वाधीनता का बीज प्रस्फुटित होना शुरू हुआ था।

रानी लक्ष्मी बाई का साथ देने के लिए बहुत से महान लोग कोशिशें करने लगे थे जैसे – तात्या टोपे, मर्दनसिंह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला, मुगल सम्राट बहादुर शाह, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल आदि।

रानी लक्ष्मीबाई का विद्रोह : भारत की जनता में विद्रोह की भावना अपनी चर्म सीमा पर पहुंचने लगी थी। पुरे देश में अच्छी और सुदृढ तरीके से क्रांति को लाने के लिए 31 मई , 1857 की तारीख तय की गई थी लेकिन इससे पहले ही लोगों में क्रांति उत्पन्न हो गई और 7 मई , 1857 को मेरठ और 4 जून , 1857 को कानपूर में क्रांति हो गई।

कानपूर को तो 28 जून , 1857 में पूरी तरह स्वतंत्रता मिल गई। अंग्रेजों के कमांडर ने विद्रोह को दबाने की कोशिश की। उन्होंने सागर , गढ़कोटा , मडखेडा , वानपुर , मदनपुर , शाहगढ़ , तालबेहट पर अपना शासन स्थापित किया और झाँसी की ओर बढने लगे। उन्होंने अपना मोर्चा पहाड़ी मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगाया था।

रानी लक्ष्मी बाई पहले से ही सावधान थीं और राजा मर्दनसिंह जो वानपुर के राजा थे उनसे युद्ध की और आने की सुचना मिल चुकी थी। सरदारों के आग्रह को मानकर रानी लक्ष्मीबाई ने कालपी के लिए प्रस्थान किया था। वहाँ पर जाकर वे शांत नहीं बैठी थीं।

रानी लक्ष्मीबाई ने नाना साहब और उनके सेनापति तात्या टोपे से संपर्क किया और उनके साथ विचार-विमर्श किया। रानी लक्ष्मी बाई की वीरता और साहस का अंग्रेज लोहा मान गये लेकिन तब भी उन्होंने रानी का पीछा किया।

ब्रितानी राज्य : लहौजी की राज्य हडपने की नीति की वजह से ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव बालक को दत्तक पुत्र मानने से मना कर दिया और झाँसी को ब्रितानी राज्यों में मिलाने का फैसला किया। उस समय रानी ने ब्रितानी वकील जान लैंग से परामर्श किया और लन्दन की अदालत में मुकदमा दायर किया।

मुकदमे में बहुत बहस की गई और अंत में मुकदमे को खारिज कर दिया गया। ब्रितानी राज्य के अधिकारीयों ने राज्य के खजाने को जब्त कर लिया और रानी लक्ष्मी बाई के पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ रानी को झाँसी का किला छोडकर रानीमहल में जाकर रहना पड़ा था। लेकिन फिर भी रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का फैसला कर लिया था।

झाँसी का युद्ध : झाँसी का पहला ऐतिहासिक युद्ध 23 मार्च , 1858 को शुरू हुआ था। झाँसी की रानी के आज्ञानुसार कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने तोपों से ऐसे गोले फेंके कि अंग्रेजी सेना बुरी तरह से हैरान हो गई। रानी लक्ष्मीबाई ने लगातार सात दीनों तक अंग्रेजों से अपनी छोटी सी सेना के साथ बहुत बहादुरी से सामना किया था।

रानी जी ने बहुत बहादुरी से युद्ध में अपना परिचय दिया था। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर कसकर अंग्रेजों से युद्ध किया था। युद्ध का इतने दिन तक चलना असंभव था। रानी लक्ष्मी बाई का घोडा बहुत बुरी तरह से घायल था जिसकी वजह से उसे वीरगति प्राप्त हुई लेकिन तब भी उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी और अपने साहस का परिचय दिया।

कालपी पहुंचकर रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने एक योजना बनाई जिसमें नाना साहब, मर्दनसिंह, अजीमुल्ला आदि सभी ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया। रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने ग्वालियर पर आक्रमण कर वहाँ के किले पर अपना शासन जमा लिया।

विजय होने का उत्सव कई दीनों तक चला लेकिन रन लक्ष्मीबाई इसके खिलाफ थीं। यह समय अपनी जीत का नहीं बल्कि अपनी शक्ति को सुसंगठित करके अपने अगले कदम को बढ़ाने का था। इस युद्ध में महिलाओं को भी सामिल किया गया था और उन्हें युद्ध कला भी सिखाई गई। आम लोगों ने भी विद्रोह में सहयोग दिया था।

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु : रानी लक्ष्मी बाई जी ने अपने वीरता का परिचय देते हुए 18 जून , 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई थीं। रानी लक्ष्मी बाई अपने जीवन के अंतिम समय में भी अणि वीरता और साहस के साथ युद्ध किया था। बाबा गंगादास ने तभी एक झोंपड़ी को चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार किया था जिसकी वजह से अंग्रेज उन्हें छू भी न सकें और वे अवित्र न हो सकें। सभी लोग आज भी जब रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु के विषय को याद करते हैं तो उनका रोम-रोम कांप उठता है।

उपसंहार : अंग्रेजों का सेनापति अपनी पूरी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई का पीछा करता रहा और एक दिन ग्वालियर के किले को घमासान युद्ध में अपने कब्जे में कर लिया था। रानी लक्ष्मी बाई ने इस युद्ध में भी अंग्रेजों को अपनी कुशलता का परिचय दिया था।

18 जून , 1858 को को ग्वालियर का आखिरी युद्ध हुआ था जिसमे रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी सेना का बहुत कुशल नेतृत्व किया था। रानी लक्ष्मी बाई इस युद्ध में घायल हो गयीं और वीरगति को प्राप्त हुईं। उन्होंने जनता को चेतना दी थी और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया था। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता , त्याग और बलिदान पर हम भारतियों को गर्व होता है।

 Rani Laxmi Bai in Hindi Essay

रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध in english

The Queen of Jhansi. Originally named Manikarnika at birth (nicknamed Manu), she was born on 19 November 1835 at Kashi (Varanasi) to a Maharashtrian Marathi Karhade Brahmin family as the daughter of Moropant Tambe and Bhagirathibai Tambe. She was also known as Chhabili by the Peshwa of Bithur because of her jolly ways. She lost her mother at the age of four. She was educated at home. Her father Moropant Tambe worked at the court of Peshwa at Bithur. The Peshwa of Bithur brought her up like his own daughter. The younger daughter of Peshwa Bajirao, Prachi, was influenced by Laxmi Bai.

Because of her father’s influence at court, Rani Lakshmi Bai had more independence than most women, who were normally restricted to the zenana. She studied self-defense, horsemanship, archery, and even formed her own army out of her female friends at court. Shah Dawar was Rani Lakshmibai’s best friend. She was married to Raja Gangadhar Rao Newalkar, the Maharaja of Jhansi in 1842, and became the queen of Jhansi. After their marriage, she was given the name Lakshmi Bai. Rani Lakshmi Bai gave birth to a son (Damodar Rao) in 1851. However, the child died when he was about four months old.

After the death of their son, the Raja and Rani of Jhansi adopted Damodar Rao (who was later formally renamed Anand Rao). Anand Rao was the son of Gangadhar Rao’s cousin. However, it is said that the Raja of Jhansi never recovered from his son’s death, and he died on 21 November 1853. Because Anand Rao was adopted and not biologically related to the Raja, the East India Company, under Governor-General Lord Dalhousie, was able to install the Doctrine of Lapse, rejecting Rao’s claim to the throne. Dalhousie then annexed Jhansi, saying that the throne had become “lapsed” and thus put Jhansi under his “protection”.

In March 1854, the Rani was given a pension of 60,000 rupees and ordered to leave the palace at the Jhansi fort. When the Maharaja died, Rani Lakshmi Bai was just eighteen years old, but she didn’t lose her courage and took up her responsibility. Being a patriotic woman, Rani was not willing to give the dominion of Jhansi to Britishers and called for an armed force. She successfully assembled an army of rebellions including women and was supported by many freedom fighters like Gulam Gaus Khan, Dost Khan, Khuda Baksh, Sunder-Mundar, Kashi Bai, Lala Bhau Bakshi, Moti Bai, Deewan Raghunath Singh, Tatya Tope and Deewan Jawahar Singh.

Rani of Jhansi, Death
In March 1858, Britishers attack on Jhansi forced Rani Lakshmi Bai’s army to fight back for the defense of the city. The war continued for two weeks but unfortunately, Britishers were successful in extending their empire. Under the cover of darkness, Rani along with her son and the army of rebellions rode to Gwalior where again a battle was fought. The second day of the war in Gwalior, unfortunately, turned out to be the last day of Rani’s life. Bravely fighting for India’ freedom, she died on June 18, 1858. Although she died in early ages, her name is still alive on this world. She is really a bravery woman.

Rani laxmi bai nibandh

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भारत की धरती पर अनेक वीरों एवं- वीरांगनाओं ने जन्म लिया जिन्होंने अपने कर्मों के बल पर विश्व में अपना नाम रोशन किया तथा सदा के लिए अमर तौ गए । ऐसी वीरागनाओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम अग्रणी है- । उस वीरांगना के क्रिया-कलापों को याद करक आज भी हृदय पुलकित हो उठता है ।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 18 नवम्बर, 1835 ईo को वाराणसी में हुआ । इनके पिता का नाम मोरोपन्त एवं माता का नाम भागीरथी था । लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मन्नू था । बचपन से ही उसे गुड्डे-गुड़ियों से खेलना, नाच–तमाशा देखना अच्छा नहीं लगता था । उसे घुड़सवारी करना, तलवारबाजी करना, निशानेबाजी आदि चीजें अच्छी लगती थीं । इनकी .माता बचपन से -ही उन्हें वीरांगनाओं की, कहानियां सुनाती रहती थी । उन कहानियों से प्रेरित होकर ही मन्नु के हृदय मैं बचपन से ही स्वदेश प्रेम एवं वीरता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई श्री । मन्नू जब छ: वर्ष की हुईं तो इनकी माता का देहांत हो गया । इनका लालन-पालन बाजीराव पेशवा के संरक्षण में हुआ ।

मन्नू जब कुछ बड़ी हुई तो इनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधरराव से कर दिया गया । विवाह पश्चात मन्नू लक्ष्मीबाई का गई । कुछ समय पश्चात लक्ष्मीबाई के घर एक पुत्र ने जन्म’ लिया । परन्तु -कुछ ही समय बाद उसकी. मृत्यु हो गई । उसके पश्चात गंगाधरराव भी बीमार रहने लगे तथा उनकी मुता हो गई । रानी ने एक बच्चा गोद लेने की सोची । उस समय बच्चा गोद लेने से पहले ब्रिटिश सरकार से मान्यता लेनी पड़ती थी । उन्होंने झांसी को पुत्र गोद लेने को मान्यता नहीं दी तथा. झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिलाने का ऐलान कर दिशा जिस कारण रानी में अंग्रेजों के प्रति पूणा एवं रोष की’ ज्वाला सुलगने लगी । रानी ने अंग्रेजों पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना तैयार की जिसका परिणाम भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम सन् 1857 ई. में हुआ । यह चिंगारी मेरठ से प्रारंभ हुई थी तथा फैलती हुई दिल्ली तथा लखनऊ तक पहुंची । अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया । रानी ने उनका जवाब डटकर दिया । परन्तु झांसी के कुछ गद्‌दार अंग्रेजों के साथ जा मिले थे जिस कारण झांसी को हार का सामना करना पड़ा । रानी ने कालपी जाकर पेशवा से मिल जाने का निश्चय किया । जब वे कालपी जा रहीं थीं तो अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई । उन्होंने रानी का पीछा किया तथा घमासान युद्ध हुआ । रानी उनका सामना करती रही तथा किसी तरह कालपी पहुंच गई । कालपी के राजा ने रानी की सहायता अपनी सेना देकर की । उस सेना के सहयोग से रानी ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया । परन्तु इस बार भी रानी को असफलता ही प्राप्त हुई । रानी सहायता के लिए ग्वालियर नरेश के पास अपनी सेना सहित पहुंची । गवालियर ने महारानी तथा उसकी सेना पर गोलाबारी शुरू कर दी । रानी की सेना ने अपनी बहादुरी से ग्वालियर के किले पर आक्रमण करके उसे अपने कब्जे में ले लिया परन्तु अंग्रेजों ने रानी का पीछा यहां भी नहीं छोड़ा । उन्होंने ग्वालियर के किले को घेर लिया । रानी ने उनका डटकर सामना किया । दोनों हाथों से तलवार से वार करती हुई, मुंह में घोड़े की लगाम लेकर अंग्रेजों को चीरती काटती आगे बढ़ती गई । रानी ने बड़ी वीरता से अंग्रेजों के वार का जवाब दिया और वह लड़ती-लड़ती वीरगति को प्राप्त हो गई । उन्होंने अंग्रेजों के सामने कभी घुटने नहीं टेके । मृत्युपर्यन्त वह अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करती रही ।

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध

रानी लक्ष्मीबाई भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी वीरांगनाओं में से एक थीं। बहादुरी, देशभक्ति और सम्मान की प्रतीक रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को पुणे में हुआ था। रानी लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत तांबे दरबार में एक सलाहकार थे और उनकी माँ भागीरथी एक विद्वान महिला थीं। रानी लक्ष्मीबाई ने बहुत ही कम उम्र में अपनी माँ को खो दिया था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता ने बहुत ही असामान्य तरीके से उनका पालन किया और हाथियों और घोड़ों की सवारी का अनुभव प्राप्त कराने और हथियारों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करने में पूर्ण रुप से सहयोग किया। रानी लक्ष्मीबाई नाना साहिब और तात्या टोपे के साथ बड़ी हुईं, जो स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाले पहले विद्रोह में सक्रिय भागीदारी रहे थे।

1842 में, रानी लक्ष्मी बाई का विवाह झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव से हुआ था। अपनी शादी के बाद वह, लक्ष्मीबाई के नाम से जानी जाने लगीं। वर्ष 1851 में, रानी लक्ष्मीबाई ने एक बेटे को जन्म दिया, लेकिन दुर्भाग्यवश चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गई। इस दुखद घटना के बाद, झांसी के महाराजा ने दामोदर राव को अपने बेटे के रूप में अपनाया था। अपने बेटे की मृत्यु विचलित और खराब स्वास्थ्य की वजह से 21 नवंबर 1853 में महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। जब महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु हुई, उस समय रानी लक्ष्मीबाई सिर्फ अट्ठारह साल की थी, लेकिन रानी लक्ष्मी बाई ने अपना साहस नहीं खोया और अपनी जिम्मेदारियों को अच्छे ढंग से निभाया।
उस समय भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी, जो एक बहुत ही चतुर व्यक्ति था और उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने के लिए झांसी के दुर्भाग्यपूर्ण समय का लाभ उठाने का प्रयास किया। ब्रिटिश शासकों ने कम उम्र के दामोदर राव को दिवंगत महाराजा गंगाधर राव और रानी लक्ष्मीबाई के कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश शासकों की इस योजना के पीछे झांसी का राज्य हड़प की नीति थी, क्योंकि उनके मुताबिक रानी लक्ष्मीबाई का कोई कानूनी उत्तराधिकारी नहीं था। मार्च 1854 में, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को 60,000 की वार्षिक पेंशन और झांसी के किले को छोड़ने का आदेश दिया गया था। रानी लक्ष्मीबाई ने भी झांसी ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य न छोड़ने दृढ़ निश्चय कर लिया था।

झांसी की रक्षा करने के लिए, रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों की सेना इकट्ठी की, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं इस महान कार्य में गुलाम गौस खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, सुंदर-मुंदर, काशी बाई, लालाभाऊ बक्शी, मोती बाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह जैसे बहादुर योद्धाओं ने रानी लक्ष्मीबाई का सहयोग किया। रानी लक्ष्मीबाई ने 14,000 सिपाहियों को इकट्ठा किया और झांसी की रक्षा के लिए एक सेना आयोजित कर ली।

जब अंग्रेजों ने मार्च 1858 में झांसी पर हमला किया, तो रानी लक्ष्मीबाई की सेना ने भी युद्ध करने का फैसला किया और यह युद्ध लगभग दो सप्ताह तक चलता रहा। भले ही झांसी की सेना ब्रिटिश सेना से हार गई हो, लेकिन झांसी की सेना ने बहुत वीरता से युद्ध लड़ा। इस भयंकर युद्ध के बाद जब ब्रिटिश सेना ने झाँसी के किले में प्रवेश किया, तो रानी लक्ष्मीबाई ने अपने बेटे दामोदर राव को अपनी पीठ पर बाँध कर दोनों हाथों में तलवार लिए बहुत बहादुरी से युद्ध लड़ा। रानी लक्ष्मीबाई कई अन्य विद्रोहियों के साथ अंधेरे का लाभ उठाकर कल्पि के किले में भाग गई। रानी लक्ष्मीबाई जब ग्वालियर चली गईं, तो उसके बाद ब्रिटिश एवं रानी लक्ष्मीबाई की सेना के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। 17 जून 1858 के दुर्भाग्यपूर्ण दिन पर, इस महान वीरांगना ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन शहीद कर दिया।

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