अग्रसेन जयंती 2022: महाराज अग्रसेन को अग्रवाल समाज का जन्मदाता कहा जाता है | इनका जन्म द्वापर युग के अंत और कलयुग की शुरुआत में हुआ था | महाराज अग्रसेन को जीव-जंतुओं से बहुत स्नेह था | इन्हे देवताओं के लिए दी जाने वाली पशु बलि की प्रथा से बहुत घृणा थी और इसीलिए इन्होने अपना सूर्यवंशी क्षत्रिय धर्म को त्याग दिया और वैश्य धर्म अपना लिया था और अपने राज्य के लोगो को पशु बलि न करने और मांसाहार त्यागने का आदेश दिया | ये स्पीच कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 ,10, 11, 12 और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए इन मराठी, हिंदी, इंग्लिश, बांग्ला, गुजराती, तमिल, तेलगु, आदि की जानकारी है जिसे आप अपने स्कूल के स्पीच प्रतियोगिता, कार्यक्रम या भाषण प्रतियोगिता में प्रयोग कर सकते है|
अग्रसेन जयंती पर भाषण
महाराजा अग्रसेन ऐसे कर्मयोगी लोकनायक हैं जिन्होंने बाल्यकाल से ही, संघर्षों से जूझते हुए अपने आदर्श जीवन कर्म से, सकल मानव समाज को महानता का जीवन-पथ दर्शाया . अपनी आत्मशक्ति को जाग्रत कर, विश्व उपदेष्टा का महत कार्य किया .
चैतन्य आनंद की अगणित विशेषताओं से संपन्न, परम पवित्र, परिपूर्ण, परिशुद्ध, मानव की लोक कल्याणकारी आभा से युक्त महामानव अग्रसेन की महिमा से अनभिज्ञ होने के कारण उन्हें एक समाज विशेष का कुलपुरुष घोषित कर इतिहास ने हाशिए पर डाल दिया .अग्रसेनजी सूर्यवंश में जन्मे. महाभारत के युद्ध के समय वे पन्द्रह वर्ष के थे . युद्ध हेतु सभी मित्र राजाओं को दूतों द्वारा निमंत्रण भेजे गए थे . पांडव दूत ने वृहत्सेन की महाराज पांडु से मित्रता को स्मृत कराते हुए . राजा वल्लभसेन से अपनी सेना सहित युद्ध में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया था .
महाभारत के इस युद्ध में महाराज वल्लभसेन अपने पुत्र अग्रसेन तथा सेना के साथ, पांडवों के पक्ष में लड़ते हुए. युद्ध के 10वें दिन भीष्म पितामह के बाणों से बिंधकर वीरगति को प्राप्त हो गए थे . युद्धोपरांत महाराजा युधिष्ठर ने भगवान कृष्ण के नेतृत्व में जो राजा व राजपुत्र शेष रहे थे. उन्हें बिदा किया महाराजा अग्रसेन ने लोक कल्याणार्थ किए गए यज्ञ में पशु बलि देने से इंकार कर दिया . इस प्रकार क्षात्रवर्ण की आहुति देकर वैश्य वर्ण को उन्होंने अपना लिया |
महाराजा अग्रसेन जयंती पर स्पीच
अग्रसेन जयंती कब है 2020: इस वर्ष महाराजा अग्रसेन जयंती 2020, 29 september को पूरे भारत में पूर्ण उत्साह के साथ मनायी जाएगी|
महाराजा अग्रसेन जी का जन्म सुर्यवंशी भगवान श्रीराम जी की चौतीस वी पीढ़ी में द्वापर के अंतिम काल (याने महाभारत काल) एवं कलयुग के प्रारंभ में अश्विन शुक्ल एकम को हुआ। कालगणना के अनुसार विक्रम संवत आरंभ होने से 3130 वर्ष पूर्व अर्थात ( 3130+ संवत 2073) याने आज से 5203 वर्ष पूर्व हुआ। वे प्रतापनगर के महाराजा वल्लभसेन एवं माता भगवती देवी के ज्येष्ठ पुत्र थे। प्रतापनगर, वर्तमान में राजस्थान एवं हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे स्थित था।
महाराज अग्रसेन जी को दो विवाह करने पड़े थे | महाराजा अग्रसेन जी का पहला विवाह नागराज कन्या माधवी जी से हुआ था। इस विवाह में स्वयंवर का आयोजन किया गया था, जिसमें राजा इंद्र ने भी भाग लिया था। माधवी जी के अग्रसेन जी को वर के रुप में चुनने से इंद्र को अपना अपमान महसूस हुआ और उन्होंने प्रतापनगर में अकाल की स्थिति निर्मित कर दी। तब प्रतापनगर को इस संकट से बचाने के लिए उन्होंने माता लक्ष्मी जी की आराधना की। माता लक्ष्मी जी ने प्रसन्न होकर अग्रसेन जी को सलाह दी कि यदि तुम कोलापूर के राजा नागराज महीरथ की पुत्री का वरण कर लेते हो तो उनकी शक्तियां तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी। तब इंद्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। इस तरह उन्होंने राजकुमारी सुंदरावती से दूसरा विवाह कर प्रतापनगर को संकट से बचाया।अग्रोहा धाम की स्थापना
महाभारत के युद्ध में महाराज वल्लभसेन, पांडवों के पक्ष में लड़ते हुए युद्ध के दसवे दिन भीष्म पितामह के बाणों से वीरगती को प्राप्त हुए। कालातंर में अपने नए राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी पत्नी माधवी के साथ पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इस दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेडिये के बच्चे एक साथ खेलते मिले। इसे दैवीय संदेश मानकर, ऋषी-मुनियों की सलाह अनुसार इसी जगह पर नए राज्य ‘अग्रेयगण’ की स्थापना की, जिसे आज ‘अग्रोहा’ नाम से जाना जाता है। यह स्थान हरियाणा में हिसार के पास स्थित है। यहां महाराजा अग्रसेन और माँ लक्ष्मी देवी का भव्य मंदिर है।
अठारह गोत्र
अग्रसेन जी ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर, अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी |
”एक ईट और एक रुपया” का समाजवादी सिद्धांत
एक बार अग्रोहा में अकाल पड़ने पर चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। ऐसे में समस्या का समाधान ढुंढ़ने के लिए अग्रसेन जी वेश बदलकर नगर भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक परिवार में सिर्फ चार सदस्यों का ही खाना बना था। लेकिन खाने के समय एक अतिरिक्त मेहमान के आने पर भोजन की समस्या हो गई। तब परिवार के सदस्यों ने चारों थालियों में से थोड़ा-थोड़ा भोजन निकालकर पांचवी थाली परोस दी। मेहमान की भोजन की समस्या का समाधान हो गया। इस घटना से प्रेरित होकर उन्होंने ‘एक ईट और एक रुपया’ के सिद्धांत की घोषणा की। जिसके अनुसार नगर में आने वाले हर नए परिवार को नगर में रहनेवाले हर परिवार की ओर से एक ईट और एक रुपया दिया जाएं। ईटों से वो अपने घर का निर्माण करें एवं रुपयों से व्यापार करें। इस तरह महाराजा अग्रसेन जी को समाजवाद के प्रणेता के रुप में पहचान मिली।
भारत सरकार द्वारा प्राप्त सम्मान
• महाराजा अग्रसेन के नाम पर 24 सितंबर 1976 में भारत सरकार ने 25 पैसे का डाक टिकट जारी किया था।
• सन 1995 में भारत सरकार ने दक्षिण कोरिया से 350 करोड़ रुपए में एक विशेष तेल वाहक जहाज खरिदा, जिसका नाम “महाराजा अग्रसेन’’ रखा गया।
• राष्ट्रिय राजमार्ग-10 का अधिकारिक नाम महाराजा अग्रसेन पर है।
आइए, अग्रसेन जयंती के शुभ अवसर पर हम यह प्रतिज्ञा लें कि हम अग्र है, अग्र ही रहेंगे, अग्रवालों की शान कभी कम न होने देंगे |
Speech on Agrasen Jayanti in Hindi
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महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा। महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।
कोलापुर में नागराज महीरथ का शासन था। राजकुमारी सुन्दरावती के स्वयंवर में अनेक देशों के राजकुमार, वेश बदलकर अनेक गंधर्व व देवता उपस्थित थे, तब भगवान शंकर एवं माता लक्ष्मी की प्रेरणा से राजकुमारी ने श्री अग्रसेन को वरण किया। दो-दो नाग वंशों से संबंध स्थापित करने के बाद महाराजा वल्लभ के राज्य में अपार सुख समृद्धि व्याप्त हुई, इन्द्र भी श्री अग्रसेन से मैत्री के बाध्य हुये।
महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: –
गोत्रों के नाम-ऐरन बंसल बिंदल भंदल धारण गर्ग गोयल गोयन जिंदल कंसल कुच्छल मधुकुल मंगल मित्तल नागल सिंघल तायल तिंगल
महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। उन्होंने महाराज अग्रसेन जीवन मूल्यों को ग्रहण किया उनमें परंपरा एवं प्रयोग का संतुलित सामंजस्य दिखाई देता है। महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए |
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